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यद्यु॒ञ्जाथे॒ वृष॑णमश्विना॒ रथं॑ घृ॒तेन॑ नो॒ मधु॑ना क्ष॒त्रमु॑क्षतम्। अ॒स्माकं॒ ब्रह्म॒ पृत॑नासु जिन्वतं व॒यं धना॒ शूर॑साता भजेमहि ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yad yuñjāthe vṛṣaṇam aśvinā rathaṁ ghṛtena no madhunā kṣatram ukṣatam | asmākam brahma pṛtanāsu jinvataṁ vayaṁ dhanā śūrasātā bhajemahi ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यत्। यु॒ञ्जाथे॒ इति॑। वृष॑णम्। अ॒श्वि॒ना॒। रथ॑म्। घृ॒तेन॑। नः॒। मधु॑ना। क्ष॒त्रम्। उ॒क्ष॒त॒म्। अ॒स्माक॑म्। ब्रह्म॑। पृत॑नासु। जि॒न्व॒त॒म्। व॒यम्। धना॑। शूर॑ऽसाता। भ॒जे॒म॒हि॒ ॥ १.१५७.२

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:157» मन्त्र:2 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:27» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:22» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अश्विना) सभा और सेना के अधीशो ! तुम (यत्) जिससे (वृषणम्) शत्रुओं की शक्ति को रोकनेवाले (रथम्) विमान आदि यान को (युञ्जाथे) युक्त करते हो इससे (घृतेन) जल और (मधुना) मधुरादि गुणयुक्त रस से (नः) हम लोगों के (क्षत्रम्) क्षत्रियकुल को (उक्षतम्) सींचो, (अस्माकम्) हमारी (पृतनासु) सेनाओं में (ब्रह्म) ब्राह्मणकुल को (जिन्वतम्) प्रसन्न करो और (वयम्) हम प्रजा सेना जन (शूरसाता) शूरों के सेवने योग्य संग्राम में (धना) धनों को (भजेमहि) सेवन करें ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को राजनीति के अङ्गों से राज्य को रख कर, धनादि को बढ़ाय और संग्रामों को जीत कर सबके लिये सुख की उन्नति करनी चाहिये ॥ २ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे अश्विना युवां यद्वृषणं रथं युञ्जाथे ततो घृतेन मधुना नः क्षत्रमुक्षतमस्माकं पृतनासु ब्रह्म जिन्वतं वयं शूरसाता धना भजेमहि ॥ २ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) यतः (युञ्जाथे) (वृषणम्) परशक्तिप्रतिबन्धकम् (अश्विना) सभासेनेशौ (रथम्) विमानादियानम् (घृतेन) उदकेन (नः) अस्माकम् (मधुना) मधुरादिगुणयुक्तेन रसेन (क्षत्रम्) क्षत्रियकुलम् (उक्षतम्) सिञ्चतम् (अस्माकम्) (ब्रह्म) ब्राह्मणकुलम् (पृतनासु) सेनासु (जिन्वतम्) प्रीणीतम् (वयम्) प्रजासेनाजनाः (धना) धनानि (शूरसाता) शूरैः संभजनीये संग्रामे (भजेमहि) सेवेमहि ॥ २ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यै राजनीत्यङ्गै राष्ट्रं रक्षित्वा धनादिकं वर्द्धयित्वा संग्रामाञ्जित्वा सर्वेभ्यः सुखोन्नतिः कार्य्या ॥ २ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी राजनीतीची अंगे जाणून राज्याचे रक्षण करावे. धन इत्यादी वाढवावे व युद्ध जिंकून सर्वांसाठी सुखाची वृद्धी करावी. ॥ २ ॥